
बाहिरपाणेहिं जहा, तहेव अब्भंतरेहिं पाणेहिं।
पाणंति जेहिं जीवा, पाणा ते होंति णिद्दिट्ठा॥129॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार अभ्यन्तर प्राणों के कार्यभूत नेत्रों का खोलना, वचनप्रवृत्ति, उच्छ्वास नि:श्वास आदि बाह्य प्राणों के द्वारा जीव जीते हैं, उसी प्रकार जिन अभ्यन्तर इन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशमादि के द्वारा जीव में जीवितपने का व्यवहार हो उनको प्राण कहते हैं ॥129॥
जीवतत्त्वप्रदीपिका