जीवतत्त्वप्रदीपिका
ण रमंति जदो णिच्चंं, दव्वे खेत्ते य काल-भावे य।
अण्णोण्णेहिं य जम्हा, तम्हा ते णारया भणिया॥147॥
अन्वयार्थ :
जो द्रव्य क्षेत्र काल भाव में स्वयं तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते उनको नारत
(नारकी)
कहते हैं ॥147॥
जीवतत्त्वप्रदीपिका