जीवतत्त्वप्रदीपिका
अहमिंदा जह देवा, अविसेसं अहमहंति मण्णंता।
ईसंति एक्कमेक्कं, इंदा इव इंदिये जाण॥164॥
अन्वयार्थ :
जिस प्रकार अहमिन्द्र देवों में दसरे की अपेक्षा न रखकर प्रत्येक अपने अपने को स्वामी मानते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियाँ भी हैं ॥164॥
जीवतत्त्वप्रदीपिका