
बतिचपमाणमसंखेणवहिदपदरंगुलेण हिदपदरं।
हीणकमं पडिभागो, आवलियासंखभागो दु॥178॥
अन्वयार्थ : प्रतरांगुल के असंख्यातवें भाग का जगतप्रतर में भाग देने से जो लब्ध आवे उतना सामान्य से त्रसराशि का प्रमाण है। परन्तु पूर्व-पूर्व द्वीन्द्रियादिक की अपेक्षा उत्तरोत्तर त्रीन्द्रियादिक का प्रमाण क्रम से हीन-हीन है और इसका प्रतिभागहार आवली का असंख्यातवाँ भाग है ॥178॥
जीवतत्त्वप्रदीपिका