
तिबिपचपुण्णपमाणं, पदरंगुलसंखभागहिदपदरं।
हीणकमं पुण्णूणा, बितिचपजीवा अपज्जत्ता॥180॥
अन्वयार्थ : प्रतरांगुल के संख्यातें भाग का जगतप्रतर में भाग देने से जो लब्ध आवे उतना ही त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में से प्रत्येक के पर्याप्तक का प्रमाण है। परन्तु यह प्रमाण मबहुभागे समभागोङ्कङ्क इस गाथा में कहे हुए क्रम के अनुसार उत्तरोत्तर हीन-हीन है। अपनी-अपनी समस्त राशि में से पर्याप्तकों का प्रमाण घटाने पर अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पंचेन्द्रिय जीवों का प्रमाण निकलता है ॥180॥
जीवतत्त्वप्रदीपिका