गूढसिरसंधिपव्वं, समभंगमहीरुहं च छिण्णरुहं।
साहारणं सरीरं, तव्विवरीयं च पत्तेयं॥187॥
अन्वयार्थ : जिनकी शिरा-बहि: स्नायु, सन्धि-रेखाबन्ध, और पर्व-गाँठ अप्रकट हों, और जिसका भंग करने पर समान भंग हो, और दोनों भंगों में परस्पर हीरुक-अन्तर्गत सूत्र-तन्तु न लगा रहे तथा छेदन करने पर भी जिसकी पुन: वृद्धि हो जाय, उनको सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कहते हैं। और जो विपरीत हैं-इन चिह्नों से रहित हैं वे सब अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति कही गयी हैं ॥187॥

  जीवतत्त्वप्रदीपिका