
आवलिअसंखसंखेणवहिदपदरंगुलेण हिदपदरं।
कमसो तसतप्पुण्णा पुण्णूणतसा अपुण्णा हु॥212॥
अन्वयार्थ : आवली के असंख्यातवें भाग से भक्त प्रतरांगुल का भाग जगतप्रतर में देने से जो लब्ध आवे उतना ही सामान्य त्रसराशि का प्रमाण है और संख्यात से भक्त प्रतरांगुल का भाग जगतप्रतर में देने से जो लब्ध आवे उतना पर्याप्त त्रस जीवों का प्रमाण है। सामान्य त्रसराशि में से पर्याप्तकों का प्रमाण घटाने पर शेष अपर्याप्त त्रसों का प्रमाण निकलता है ॥212॥
जीवतत्त्वप्रदीपिका