घादीवि अघादिं वा, णिस्सेसं घादणे असक्कादो ।
णामतियणिमित्तादो, विग्घं पडिदं अघादि चरिमम्हि ॥17॥
अन्वयार्थ : [घादीवि अघादिं वा] घातिया होते हुए भी अघातिया कर्मवत् है, [णिस्सेसं घादणे असक्कादो] समस्त जीव के गुण घातने को समर्थ नहीं है [णामतियणिमित्तादो] नाम, गोत्र, वेदनीय इन तीन कर्म के निमित्त से ही इसका व्यापार है, [विग्घं पडिदं अघादि चरिमम्हि] इसी कारण अघातिया के भी बाद अन्त में अन्तराय कर्म कहा है ॥१७॥