
सादं तिण्णेवाऊ, उच्चं णरसुरदुगं च पंचिंदी ।
देहा बंधणसंघा-दंगोवंगाइं वण्णचओ ॥41॥
समचउरवज्जरिसह, उवघादूणगुरुछक्क सग्गमणं ।
तसबारसट्ठसट्ठी, बादालमभेददो सत्था ॥42॥
घादी णीचमसादं, णिरयाऊ णिरयतिरियदुग जादी ।
संठाणसंहदीणं, चदुपणपणगं च वण्णचओ ॥43॥
उवघादमसग्गमणं, थावरदसयं च अप्पसत्था हु ।
बंधुदयं पडि भेदे, अडणउदि सयं दुचदुरसीदिदरे ॥44॥
अन्वयार्थ : सातावेदनीय 1, तिर्यंच, मनुष्य, देवायु 3, उच्चगोत्र 1, मनुष्यगति, मनुष्य-गत्यानुपूर्वी, देवगति, देव-गत्यानुपूर्वी, पंचइन्द्रिय-जाति, शरीर 5, बंधन 5, संघात 5, अंगोपांग 3, शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श इन चार के 20 भेद, समचतुरस्र-संस्थान, वज्रऋषभनाराच-संहनन, उपघात के बिना अगुरुलघु आदि छह, प्रशस्त-विहायोगति और त्रस आदिक बारह -- इस प्रकार 68 प्रकृतियाँ भेद-विवक्षा से प्रशस्त कही हैं । और अभेद-विवक्षा से 42 ही पुण्य प्रकृतियाँ हैं क्योंकि पहले कहे अनुसार 26 कम हो जाती हैं ॥४१-४२॥
चारों घातिया कर्मों की प्रकृतियाँ, नीचगोत्र, असाता-वेदनीय, नरकायु, नरकगति, नरक-गत्यानुपूर्वी, तिर्यंच गति, तिर्यंच-गत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियादि 4 जाति, समचतुरस्र को छोड़कर 5 संस्थान, पहिले संहनन के सिवाय 5 संहनन, अशुभ वर्ण रस गंध स्पर्श ये चार अथवा इनके बीस भेद, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और स्थावर आदिक दस -- ये अप्रशस्त प्रकृतियाँ हैं । ये भेद-विवक्षा से बन्धरूप 98 हैं और उदयरूप 100 हैं । तथा अभेद-विवक्षा से बन्धयोग्य 82 और उदयरूप 84 प्रकृतियाँ हैं क्योंकि वर्णादिक चार के सोलह भेद कम हो जाते हैं ॥४३-४४॥
| कर्मों में विभाजन |
| प्रशस्त | अप्रशस्त |
| 42 | 82 |
| घातिया कर्मों की सभी प्रकृतियाँ अप्रशस्त हैं |