
जाणुगसरीर भवियं, तव्वदिरित्तं तु होदि जं विदियं ।
तत्थ सरीरं तिविहं, तियकालगयंति दो सुगमा ॥55॥
अन्वयार्थ : दूसरा जो नोआगमद्रव्यकर्म है वह ज्ञायकशरीर, भावि और तद्व्यतिरिक्त के भेद से तीन प्रकार का है ।
उनमें से ज्ञायकशरीर भूत, वर्तमान, भावी -- इस तरह तीन कालों की अपेक्षा तीन प्रकार का है ।
उन तीनों में से वर्तमान तथा भावी शरीर इन दोनों का अर्थ समझने में सुगम है, कठिन नहीं है । क्योंकि वर्तमान शरीर वह है जिसको धारण कर रहा है और भावी शरीर वह है कि जिसको आगामी काल में धारण करेगा ॥५५॥