मूलुत्तरपयडीणं, णामादी एवमेव णवरिं तु ।
सगणामेण य णामं, ठवणा दवियं हवे भावो ॥67॥
अन्वयार्थ : कर्म की मूलप्रकृति 8 तथा उत्तर प्रकृति 148 हैं । इन दोनों के जो नामादि चार निक्षेप है उनका स्‍वरूप सामान्य कर्म की तरह समझना । परंतु इतनी विशेषता है कि, जिस प्रकृति का जो नाम हो उसी के अनुसार नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव निक्षेप होते हैं ॥६७॥