
थीपुंसंढसरीरं, ताणं णोकम्म दव्वकम्मं तु ।
वेलंबको सुपुत्तो, हस्सरदीणं च णोकम्मं ॥76॥
इट्ठाणिट्ठवियोगं, जोगं अरदिस्स मुदसुपुत्तादी ।
सोगस्स य सिंहादी, णिंदिददव्वं च भयजुगले ॥77॥
अन्वयार्थ : स्त्रीवेद का नोकर्म स्त्री का शरीर, पुरुषवेद का नोकर्म पुरुष का शरीर है, और नपुंसकवेद का नोकर्म स्त्री, पुरुष और नपुंसक का शरीर है ।
हास्यकर्म के नोकर्म विदूषक व बहुरूपिया आदि हैं जो कि हँसी-ठठ्ठा करने के पात्र हैं ।
रतिकर्म का नोकर्म अच्छा गुणवान् पुत्र है; क्योंकि गुणवान् पुत्र पर अधिक प्रीति होती है ॥७६॥
अरति कर्म का नोकर्मद्रव्य इष्ट का वियोग होना और अनिष्ट अर्थात् अप्रिय वस्तु का संयोग होना है ।
शोक का नोकर्मद्रव्य सुपुत्र, स्त्री आदि का मरना है ।
सिंह आदिक भय के करने वाले पदार्थ भयकर्म के नोकर्म द्रव्य हैं । तथा
निंदित वस्तु जुगुप्सा कर्म की नोकर्मद्रव्य है ॥७७॥