बंधणपहुदिसमण्णिय-सेसाणं देहमेव णोकम्मं ।
णवरि विसेसं जाणे, सगखेत्तं आणुपुव्‍वीणं ॥82॥
अन्वयार्थ : बंधन नामकर्म से लेकर जितनी पुद्‌गलविपाकी प्रकृतियाँ हैं उनका, और पहले कही हुई प्रकृतियों के सिवाय जीवविपाकी प्रकृतियों में से जितनी बाकी बची उनका नोकर्म शरीर ही है क्योंकि उन प्रकृतियों से उत्पन्न हुए सुखादिरूप कार्य का कारण शरीर ही है । इतना विशेष है कि क्षेत्रविपाकी चार आनुपूर्वी प्रकृतियों का नोकर्मद्रव्‍य अपना-अपना क्षेत्र ही है ॥८२॥