
णोआगमभावो पुण, सगसगकम्मफलसंजुदो जीवो ।
पोग्गलविवाइयाणं, णत्थि खु णोआगमो भावो ॥86॥
अन्वयार्थ : जिस-जिस कर्म का जो-जो फल है उस फल को भोगते हुए जीव को ही उस-उस कर्म का नोआगमभावकर्म जानना । पुद्गलविपाकी प्रकृतियों का नोआगमभावकर्म नहीं होता । क्योंकि उनका उदय होने पर भी जीवविपाकी प्रकृतियों की सहायता के बिना साताजन्य सुखादिक की उत्पत्ति नहीं हो सकती । इस तरह सामान्यकर्म की मूल उत्तर दोनों प्रकृतियों के चार निक्षेप कहे ॥८६॥