
ठिदिअणुभागपदेसा, गुणपडिवण्णेसु जेसिमुक्कस्सा ।
तेसिमणुक्कस्सो चउव्विहोऽजहण्णेवि एमेव ॥91॥
अन्वयार्थ : गुणप्रतिपन्न अर्थात् सातिशय मिथ्यादृष्टि, सासादनादिक ऊपर-ऊपर के गुणस्थानवर्ती जीवों में जिन कर्मों का स्थिति-अनुभाग-प्रदेशबंध उत्कृष्ट होता है उन्हीं कर्मों का अनुत्कृष्ट स्थिति, अनुभाग, प्रदेशबंध सादि बंधादि के भेद से चार तरह का होता है । इसी तरह जिन कर्मों का स्थिति-अनुभाग-प्रदेशबंध ऊपर-ऊपर के गुणस्थानों में जघन्य पाया जाता है उन्हीं कर्मों का अजघन्य बंध चार प्रकार का होता है ॥९१॥