
सम्मेव तित्थबंधो, आहारदुगं पमादरहिदेसु ।
मिस्सूणे आउस्स य, मिच्छादिसु सेसबंधो दु ॥92॥
अन्वयार्थ : असंयत गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग तक सम्यग्दृष्टि के ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है ।
आहारक शरीर और आहारक अङ्गोपाङ्ग प्रकृतियों का बंध अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण के छठे भाग तक ही होता है ।
आयुकर्म का बंध मिश्र गुणस्थान तथा निर्वृत्त्यपर्याप्त अवस्था को प्राप्त मिश्रकाययोग इन दोनों के सिवाय मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक ही होता है ।
बाकी बची प्रकृतियों का बंध मिथ्यादृष्टि वगैरह गुणस्थानों में अपनी-अपनी बंध की व्युच्छित्ति तक होता है ॥९२॥