पढमुवसमिये सम्मे, सेसतिये अविरदादिचत्तारि ।
तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंते ॥93॥
अन्वयार्थ : प्रथमोपशम सम्यक्‍त्‍व में अथवा बाकी के तीनों (द्वितीयोपशम सम्‍यक्‍त्‍व, क्षयोपशम सम्यक्‍त्‍व और क्षायिक सम्यक्‍त्‍व) की अवस्था में, असंयत से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक चार गुणस्थानों वाले मनुष्य ही, केवली तथा श्रुतकेवली (द्वादशाङ्ग के पारगामी) के निकट ही तीर्थंकर प्रकृति के बंध का आरंभ करते हैं ॥९३॥