मिच्छत्तहुंडसंढाऽसंपत्तेयक्खथावरादावं ।
सुहुमतियं वियलिंदिय, णिरयदुणिरयाउगं मिच्छे ॥95॥
अन्वयार्थ : मिथ्यात्व, हुण्डक संस्‍थान, नपुंसक वेद, असंप्राप्‍तासृपाटिका संहनन, एकेन्द्रिय, स्‍थावर, आतप, सूक्ष्‍मादि तीन (सूक्ष्म, अपर्याप्‍त, साधारण), विकलेन्द्रिय तीन जाति (दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय), नरकगति, नरकगत्‍यानुपूर्वी, नरकायु ये 16 प्रकृतियाँ मिथ्यात्व गुणस्थान के अंत समय में बंध से व्‍युच्छिन्न हो जाती है । अर्थात् मिथ्यात्व से आगे के गुणस्‍थानों में इनका बंध नहीं होता ॥९५॥