
मरणूणम्हि णियट्टी-पढमे णिद्दा तहेव पयला य ।
छट्ठे भागे तित्थं, णिमिणं सग्गमणपंचिंदी ॥99॥
तेजदुहारदुसमचउ-सुरवण्णागुरुचउक्कतसणवयं ।
चरिमे हस्सं च रदी, भयं जुगुच्छा य वोच्छिण्णा ॥100॥
अन्वयार्थ : निवृत्ति के मरण-अवस्थारहित प्रथम भाग में निद्रा और प्रचला इन 2 प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है । छठे भाग के अंतसमय में तीर्थंकर प्रकृति, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, पंचेंद्रिय जाति, तैजस कार्मण ये दो, आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग ये दो, समचतुस्रसंस्थान, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग -- ये चार, वर्णादि चार, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास -- ये चार और त्रसादि नौ -- इन 30 प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है । अंत के सातवें भाग में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा -- इन 4 प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है ॥९९-१००॥