ओघे वा आदेसे, णारयमिच्छम्हि चारि वोच्छिण्णा ।
उवरिम बारस सुरचउ, सुराउ आहारयमबंधा ॥105॥
अन्वयार्थ : मार्गणाओं में व्युच्छित्ति वगैरह तीनों अवस्‍थाएँ गुणस्‍थान के समान जानना । परन्तु विशेष यह है कि नरकगति में मिथ्यात्व गुणस्‍थान के अन्त में मिथ्यात्वादि चार प्रकृतियों की ही व्‍युच्छित्ति होती है । सोलह में से आदि की मिथ्यात्वादि चार प्रकृतियों के बिना बाकी एकेन्द्रिय आदि बारह तथा सुर-चतुष्क, देवायु और आहारकद्विक -- ये सब 19 प्रकृतियाँ अबंधरूप हैं ॥१०४॥