धम्मे तित्थं बंधदि, वंसामेघाण पुण्णगो चेव ।
छट्ठोत्ति य मणुवाऊ, चरिमे मिच्छेव तिरियाऊ ॥106॥
अन्वयार्थ : धर्मा नाम के पहले नरक की पृथिवी में पर्याप्‍त और अपर्याप्‍त दोनों अवस्थाओं में तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है । वंशा नामक दूसरे तथा मेघा नामक तीसरे नरक में पर्याप्‍त जीव ही तीर्थंकर प्रकृति को बाँधता है । मघवी नामक छट्ठे नरक तक ही मनुष्यायु का बंध होता है । अंत के माघवी नाम सातवें नरक में मिथ्यात्व गुणस्‍थान में ही तिर्यंच आयु का बंध होता है ॥१०६॥