
तिरिये ओघो तित्था-हारूणो अविरदे छिदी चउरो ।
उवरिमछण्हं च छिदी, सासणसम्मे हवे णियमा ॥108॥
अन्वयार्थ : तिर्यंचगति में भी व्युच्छित्ति वगैरह गुणस्थानों की तरह ही समझना । परंतु इतनी विशेषता है कि तीर्थंकर और आहारक-द्विक — इन तीनों का बंध नहीं होता । इसी कारण तिर्यंचगति में बंध-योग्य प्रकृतियाँ 117 ही हैं । चौथे अविरत गुणस्थान में अप्रत्याख्यान क्रोधादि 4 की ही व्युच्छित्ति है । चार से आगे की वज्रऋषभनाराच आदि 6 प्रकृतियों की व्युच्छित्ति दूसरे सासादन गुणस्थान में ही नियम से हो जाती है ॥१०८॥