
तिरियेव णरे णवरि हु, तित्थाहारं च अत्थि एमेव ।
सामण्णपुण्णमणुसिणि-णरे अपुण्णे अपुण्णेव ॥110॥
अन्वयार्थ : मनुष्य गति में व्युच्छित्ति वगैरह की रचना तिर्यंचगति की ही तरह जानना । विशेषता इतनी है कि यहाँ पर तीर्थंकर और आहारक-द्विक -- इन तीनों का भी बंध होता है और गुणस्थान 14 हैं । इसी कारण यहाँ पर बंध-योग्य प्रकृतियां 120 हैं ।
सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, स्त्रीवेदरूप मनुष्य -- इन तीनों की व्युच्छित्ति आदि की रचना तो मनुष्य गति जैसी ही है ।
लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य की रचना तिर्यंचलब्ध्यपर्याप्त की तरह समझना ॥११०॥