
णिरयेव होदि देवे, आईसाणोत्ति सत्त वाम छिदी ।
सोलस चेव अबन्धो, भवणतिए णत्थि तित्थयरं ॥111॥
अन्वयार्थ : देवगति में व्युच्छित्ति आदिक नरकगति के समान जानना । परंतु इतना विशेष है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में दूसरे ईशान स्वर्ग तक पहले गुणस्थान की 16 प्रकृतियों में से मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों की ही व्युच्छित्ति होती है । बाकी बची हुई सूक्ष्मादि 9 तथा सुर-चतुष्क, देवायु, आहारकद्विक -- ये सात, सब 9+7 मिलाकर 16 प्रकृतियाँ अबंधरूप हैं । इसी कारण यहाँ बंध-योग्य प्रकृतियाँ 104 हैं । भवनत्रिक देवों में तीर्थंकर प्रकृति बंध-योग्य नहीं है ॥१११॥