
पुण्णिदरं विगिविगले, तत्थुप्पण्णो हु सासणो देहे ।
पज्जत्तिं णवि पावदि, इदि णरतिरियाउगं णत्थि ॥113॥
अन्वयार्थ : एकेंद्रिय तथा विकलत्रय में लब्धि-अपर्याप्तक अवस्था की तरह बंध-योग्य 109 प्रकृतियाँ समझना क्योंकि तीर्थंकर, आहारकद्वय, देवायु, नरकायु और वैक्रियिक-षट्क -- इस तरह ग्यारह प्रकृतियों का बंध नहीं होता । एकेन्द्रिय और विकलत्रय में मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थान ही होते हैं । इनमें से पहले गुणस्थान में बंध-व्युच्छित्ति 15 प्रकृतियों की होती है ॥११३॥*मनुष्य आयु और तिर्यंच आयु की बंध-व्युच्छित्ति प्रथम गुणस्थान में ही क्यों कही? तो इसका कारण यह है कि एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय में उत्पन्न हुआ जीव सासादन गुणस्थान में शरीर पर्याप्ति को पूरा नहीं कर सकता है क्योंकि सासादन का काल थोड़ा और निवृत्ति-अपर्याप्त अवस्था का काल बहुत है । इसी कारण सासादन गुणस्थान में मनुष्यायु तथा तिर्यंचायु का भी बंध नहीं होता है; प्रथम गुणस्थान में ही बंध और व्युच्छित्ति होती है