
पचेन्द्रियेसु ओघं एयक्खे वा वणप्फदीयंते ।
मणुवदुगं मणुवाऊ उच्चं व हि तेउवाउम्हि ॥114॥
अन्वयार्थ : पंचेंद्रिय जीवों के व्युच्छित्ति आदिक गुणस्थान की तरह समझना, कुछ विशेषता नहीं है और कार्यमार्गणा में पृथ्वीकायादि वनस्पतिकाय पर्यंत में एकेन्द्रिय की तरह, व्युच्छित्ति आदिक जानना । विशेष यह है कि तेजकाय तथा वायुकाय में मनुष्य गति, मनुष्य गत्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, उच्च गोत्र -- इन चार प्रकृतियों का बंध नहीं होता है और गुणस्थान एक मिथ्यादृष्टि ही है ।