
ण हि सासणो अपुण्णे, साहारणसुहुमगे य तेउदुगे ।
ओघं तस मणवयणे, ओराले मणुवगइभंगो ॥115॥
अन्वयार्थ : लब्धि-अपर्याप्तक अवस्था में, साधारण जीवों में, सब सूक्ष्मकाय वालों में, तेजोकाय और वायुकाय वालों में सासादन नामक दूसरा गुणस्थान नहीं होता । इसका कारण काल का थोड़ा होना है सो पहले कह चुके हैं ।
त्रसकाय की रचना गुणस्थानों की तरह समझनी ।
योगमार्गणा में मनोयोग तथा वचनयोग की रचना गुणस्थानों की तरह जाननी ।
औदारिक काययोग में मनुष्यगति की तरह रचना जानना ॥११५॥