
ओराले वा मिस्से, ण सुरणिरयाउहारणिरयदुगं ।
मिच्छदुगे देवचओ, तित्थं ण हि अविरदे अत्थि ॥116॥
अन्वयार्थ : औदारिक-मिश्रकाययोग में औदारिक काययोगवत् रचना जानना । विशेष बात यह है कि देवायु, नरकायु, आहारक-द्विक, नरक-द्विक -- इन छह प्रकृतियों का बंध नहीं होता अर्थात् यहाँ पर 114 का ही बंध होता है ।
उसमें भी मिथ्यात्व तथा सासादन -- इन दो गुणस्थानों में देव-चतुष्क और तीर्थंकर इन 5 प्रकृतियों का बंध नहीं होता । किंतु अविरतनामा चौथे गुणस्थान में इनका बंध होता है ॥११६॥