
देवे वा वेगुव्वे, मिस्से णरतिरियआउगं णत्थि ।
छट्ठगुणं वाहारे, तम्मिस्से णत्थि देवाऊ ॥118॥
अन्वयार्थ : वैक्रियिक काययोग में देवगति के समान जानना ।
वैक्रियिक-मिश्रकाययोग में देवगति के समान है परंतु इस मिश्र में मनुष्यायु और तिर्यंचायु का बंध नहीं होता ।
आहारक काययोग में छठे गुणस्थान के समान रचना जानना । लेकिन आहारक-मिश्रकाययोग में देवायु का बंध नहीं होता है ॥११८॥