
णवरि य सव्वुवसम्मे, णरसुरआऊणि णत्थि णियमेण ।
मिच्छस्संतिमणवयं, बारं ण हि तेउपम्मेसु ॥120॥
सुक्के सदरचउक्कं, वामंतिमबारसं च ण च अत्थि ।
कम्मेव अणाहारे, बंधस्संतो अणंतो य ॥121॥
अन्वयार्थ : विशेषता यह है कि सम्यक्त्व मार्गणा में निश्चयकर दोनों ही उपशम सम्यक्त्वी जीवों के मनुष्यायु और देवायु का बंध नहीं होता ।
लेश्या मार्गणा में तेजोलेश्या वाले के मिथ्यात्व गुणस्थान की अंत की नौ तथा पद्मलेश्या वाले के मिथ्यात्व गुणस्थान की अंत की बारह प्रकृतियों का बंध नियम से नहीं होता ।
शुक्ललेश्या वाले के शतार-चतुष्क और मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अंत की बारह, सब मिलकर 16 प्रकृतियों का बंध नहीं होता है ।
आहार मार्गणा में अनाहारक अवस्था में कार्मण योग की भांति बंध-व्युच्छित्ति आदिक तीनों की रचना समझ लेना ॥