सादी अबंधबंधे, सेढि अणारूढगे अणादी हु ।
अभव्‍वसिद्धम्हि धुवो, भवसिद्धे अद्धुवो बंधो ॥123॥
अन्वयार्थ : जिस कर्म के बंध का अभाव होकर फिर वही कर्म बँधे उसे सादिबंध कहते हैं । जो गुणस्‍थानों की श्रेणी पर ऊपर को नहीं चढ़ा अर्थात् जिस बंध का अभाव नहीं हुआ वह अनादिबंध है । जिस बंध का आदि तथा अंत न हो वह ध्रुवबंध है । यह बंध अभव्‍य जीव के होता है । जिस बंध का अंत आ जावे उसे अध्रुवबंध कहते हैं । यह अध्रुवबंध भव्य जीवों के होता है ॥१२३॥जैसे किसी जीव के दसवें गुणस्‍थान तक ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियों का बंध था, जब वह जीव ग्यारहवें में गया तब बंध का अभाव हुआ, पीछे ग्यारहवें गुणस्‍थान से पढ़कर फिर दसवें में आया तब ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियों का पुन: बंध हुआ, ऐसा बंध सादि कहलाता है ।जैसे दसवें तक ज्ञानावरण का बंध । दसवें गुणस्‍थान वाला ग्यारहवें में जब तक प्राप्‍त नहीं हुआ वहां तक ज्ञानावरण का अनादि बंध है, क्योंकि वहाँ तक अनादिकाल से उसका बंध चला आता है ।