
घादितिमिच्छकसाया, भयतेजगुरुदुगणिमिणवण्णचऊ ।
सत्तेतालधुवाणं, चदुधा सेसाणयं तु दुधा ॥124॥
अन्वयार्थ : मोहनीय के बिना तीन घातिया कर्मों की 19 प्रकृतियाँ, मिथ्यात्व तथा 16 कषाय एवं भय, तैजस और अगुरुलघु का जोड़ा अर्थात् भय-जुगुप्सा, तैजस-कार्मण, अगुरुलघु-उपघात, तथा निर्माण और वर्णादि चार -- ये 47 प्रकृतियाँ ध्रुव हैं । इनका चारों प्रकार का बंध होता है । इनके बिना जो बाकी बची वेदनीय की 2, मोहनीय की 7, आयु की 4 और नामकर्म की गति आदिक 58 तथा गोत्र कर्म की 2 -- ये 73 प्रकृतियाँ अध्रुव हैं । इनके सादि और अध्रुव दो ही बंध होते हैं । इनका किसी समय बंध होता है और किसी समय बंध नहीं भी होता ॥१२४॥
जब तक इनके बंध की व्युच्छित्ति न हो तब तक इन प्रकृतियों का प्रति समय निरंतर बंध होता ही रहता है, इस कारण इनको ध्रुव कहते हैं ।