
सेसे तित्थाहारं, परघादचउक्क सव्वआऊणि ।
अप्पडिवक्खा सेसा, सप्पडिवक्खा हु बासट्ठी ॥125॥
अवरो भिण्णमुहुत्तो, तित्थाहाराण सव्वआऊणं ।
समओ छावट्ठीणं, बंधो तम्हा दुधा सेसा ॥126॥
अन्वयार्थ : 47 ध्रुव प्रकृतियों में से बची हुई शेष 73 प्रकृतियों में तीर्थंकर प्रकृति, आहारकद्विक, परघात चतुष्क तथा सर्व आयु - इस प्रकार ये 11 प्रकृतियाँ अप्रतिपक्षी हैं । शेष बची 62 प्रकृतियाँ सप्रतिपक्षी हैं ।
तीर्थंकर प्रकृति, आहारकद्विक एवं सर्व आयु - इन 7 प्रकृतियाें के निरंतर बंध होने का जघन्य काल अंतर्मुहूर्त हैं । शेष 66 प्रकृतियाें के निरंतर बंध का जघन्य काल एक समय है । इसीलिये इन सब 73 प्रकृतियाें के सादि एवं अध्रुव - ये दो बंध ही कहे गये हैं॥126॥