
दुक्खतिघादीणोघं सादिच्छीमणुदुगे तदद्धं तु ।
सत्तरि दंसणमोहे चरित्तमोहे य चत्तालं ॥128॥
संठाणसंहदीणं चरिमस्सोघं दुहीणमादित्ति ।
अट्ठरसकोडकोडी वियलाणं सुहुमतिण्हं च ॥129॥
अरदीसोगे संढे तिरिक्खभयणिरयतेजुरालदुगे ।
वेगुव्वादावदुगे णीचे तसवण्णअगुरुतिचउक्के ॥130॥
इगिपंचेंदियथावरणिमिणासग्गमण अथिरछक्काणं ।
वीसं कोडाकोडीसागरणामाणमुक्कस्सं ॥131॥
हस्सरदिउच्चपुरिसे थिरछक्के सत्थगमणदेवदुगे ।
तस्सद्धमंतकोडाकोडी आहारतित्थयरे ॥132॥
सुरणिरयाऊणोघं णरतिरियाऊण तिण्णि पल्लाणि ।
उक्कस्सट्ठिदिबंधो सण्णीपज्जत्तगे जोगे ॥133॥कुलयं।
अन्वयार्थ : असाता वेदनीय तथा तीन घातिया कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिबंध ओघ के समान है । साता वेदनीय, स्त्री वेद एवं मनुष्यद्विक का उससे आधा है । दर्शनमोह अर्थात् मिथ्यात्व का 70 कोड़ाकोड़ी सागर है । चारित्र मोह अर्थात् 16 कषायों का 40 कोड़ाकोड़ी सागर है ॥128॥
चरम संस्थान एवं संहनन का ओघ के समान है । अवशेष में 2-2 कम है । विकलत्रिक एवं सूक्ष्मत्रिक का 18 कोड़ाकोड़ी सागर है ॥129॥
अरति, शोक, नपुंसकवेद तथा तिर्यंच, भय, नरक, तैजस, औदारिक, वैक्रियक, आतप - इन 7 द्विकों का; नीच गोत्र एवं त्रस, वर्ण, अगुरुलघु - इन 3 चतुष्क का; एकेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, स्थावर, निर्माण, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर षट्क - इन सब प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध 20 कोड़ाकोड़ी सागर है ॥130-131॥
हास्य, रति, उच्च गोत्र, पुरुषवेद, स्थिर षटक, प्रशस्त विहायोगति, देवद्विक का उससे आधा है । आहारकद्विक एवं तीर्थंकर प्रकृति का अंतः कोड़ाकोड़ी सागर है ॥132॥
देवायु एवं नरकायु का ओघ के समान है । मनुष्यायु एवं तिर्यंचायु का 3 पल्य है । यह सभी उत्कृष्ट स्थितिबंध संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त योग्य जीव के ही होता है ॥133॥