
सव्वुक्कस्सठिदीणं मिच्छाइट्ठी दु बंधगो भणिदो ।
आहारं तित्थयरं देवाउं वा विमोत्तूण ॥135॥
देवाउगं पमत्तो आहारयमप्पमत्तविरदो दु ।
तित्थयरं च मणुस्सो अविरदसम्मो समज्जेइ ॥136॥
णरतिरिया सेसाउं वेगुव्वियछक्कवियलसुहुमतियं ।
सुरणिरया ओरालियतिरियदुगुज्जोवसंपत्तं ॥137॥
देवा पुण एइंदियआदावं थावरं च सेसाणं ।
उक्कस्ससंकिलिट्ठा चदुगदिया ईसिमज्झिमया ॥138॥
अन्वयार्थ : आहारकद्विक, तीर्थंकर प्रकृति, देवायु - इन चार प्रकृतियों को छोड़कर शेष एक सोलह प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति मिथ्यादृष्टि जीव ही बांधता है । इन चारों की सम्यग्दृष्टि ही बांधता है ॥135॥
देवायु की प्रमत्तविरत जीव बांधता है । आहारकद्विक की अप्रमत्तविरत जीव बांधता है । तीर्थंकर प्रकृति की अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य बांधता है ॥136॥
शेष 3 आयु , वैक्रियिक षट्क, विकलत्रय तथा सूक्ष्मत्रय को मनुष्य और तिर्यंच बांधता है । औदारिकद्विक, तिर्यंचद्विक, उद्योत तथा असंप्राप्तासृपाटिका संहनन को देव और नारकी बांधता है ॥137॥
एकेंन्द्रिय, आतप और स्थावर को देव बांधता है । शेष प्रकृतियों को उत्कृष्ट संक्लेशी और ईषत्, मध्यम संक्लेशी चारों गतियों के जीव बांधते हैं ॥138॥