
बारस य वेयणीये णामे गोदे य अट्ठ य मुहुत्ता ।
भिण्णमुहुत्तं तु ठिदी जहण्णयं सेसपंचण्हं ॥139॥
लोहस्स सुहुमसत्तरसाणं ओघं दुगेकदलमासं ।
कोहतिये पुरिसस्स य अट्ठ य वस्सा जहण्णठिदी ॥140॥
तित्थाहाराणंतोकोडाकोडी जहण्णठिदिबंधो ।
खवगे सगसगबंधच्छेदणकाले हवे णियमा ॥141॥
भिण्णमुहुत्तो णरतिरियाऊणं वासदससहस्साणि ।
सुरणिरयआउगाणं जहण्णओ होदि ठिदिबंधो ॥142॥
सेसाणं पज्जत्तो बादरएइंदियो विसुद्धो य ।
बंधदि सव्वजहण्णं सगसगउक्कस्सपडिभागे ॥143॥
अन्वयार्थ : जघन्य स्थितिबंध वेदनीय में बारह मुहूर्त, नाम और गोत्र में आठ मुहूर्त एवं अवशेष पाँच कर्मों में अंतर्मुहूर्त प्रमाण है ।
लोभ और सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में जिनका बंध पाया जाता है ऐसी सत्रह प्रकृतियों का मूलप्रकृतिवत् जानना । क्रोध का दो महीना, मान का एक महीना, माया का पंद्रह दिन, पुरुषवेद का आठ वर्ष प्रमाण जघन्य स्थितिबंध जानना॥140॥
तीर्थंकर प्रकृति, आहारकद्विक इन तीन प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध अंतःकोड़ाकोड़ी प्रमाण है, जो नियम से क्षपक श्रेणी वाले के अपनी-अपनी बंध की व्युच्छित्ति के समय में होता है ॥141॥
मनुष्यायु, तिर्यंचायु का जघन्य स्थितिबंध अंतर्मुहूर्त प्रमाण है । देवायु, नरकायु का दस हजार वर्ष प्रमाण है॥142॥
अवशेष इक्यानवे प्रकृतियों में से वैक्रियिकषट्क और एक मिथ्यात्व - इन सात को छोड़कर शेष चौरासी प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध यथायोग्य विशुद्धि का धारक बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव करता है, वहाँ अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति के प्रतिभाग द्वारा त्रैराशिक विधान से जो-जो प्रमाण हो, उतना-उतना जघन्य स्थितिबंध का प्रमाण जानना ॥143॥