+ नाद को सुनने से आश्चर्य नही करना चाहिए -
एयं पणकदि पण्णं सयं सहस्सं च मिच्छवरबंधो ।
इगिविगलाणं अवरं पल्लासंखूणसंखूणं ॥144॥
जदि सत्तरिस्स एत्तियमेत्तं किं होदि तीसियादीणं ।
इदि संपाते सेसाणं इगिविगलेसु उभयठिदी ॥145॥
अन्वयार्थ : मिथ्यात्व कर्म का उत्कृष्ट स्थितिबंध - एकेंन्द्रिय जीव एक सागर, द्वीन्द्रिय जीव 25 सागर, त्रीन्द्रिय जीव 50 सागर, चतुरिन्द्रिय जीव 100 सागर तथा पंचेन्द्रिय असंज्ञी जीव 1000 सागर बांधता है । मिथ्यात्व कर्म की जघन्य स्थिति - एकेन्द्रिय जीव तो अपनी उत्कृष्ट स्थिति से पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण कम बांधता है तथा द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति से पल्य के संख्यातवें भाग प्रमाण कम बांधते है ।
यदि सत्तर का इतना बंधता है तो तीस आदि का कितना बंधेगा? - इस प्रकार त्रैराशिक करने पर शेष एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय में समस्त कर्मों की अपनी-अपनी उत्कृष्ट एवं जघन्य स्थिति का प्रमाण निकल आता है ।