आबाहं वोलाविय पढमणिसेगम्मि देय बहुगं तु ।
तत्तो विसेसहीणं बिदियस्सादिमणिसेओत्ति ॥161॥
बिदिये बिदियणिसेगे हाणी पुव्विल्लहाणिअद्धं तु ।
एवं गुणहाणिं पडि हाणी अद्धद्धयं होदि ॥162॥
अन्वयार्थ : आबाधा काल को छोड़कर जो अनंतर समय है वहाँ पहली गुणहानि के प्रथम निषेक में (अन्य निषेकों से) बहुत अधिक द्रव्य देना । दूसरे निषेक से लेकर दूसरी गुणहानि के प्रथम निषेकपर्यंत विशेष (चय) हीन कर्म परमाणु देना चाहिये ।
द्वितीय गुणहानि के दूसरे निषेक में पहली गुणहानि के चय प्रमाण से आधा चय घटाना चाहिये । (इतने ही चय तीसरी गुणहानि के पहले निषेक तक घटाना चाहिये) । इसी प्रकार गुणहानि-गुणहानि प्रति आधा-आधा अनुक्रम जानना ।