आदाओ उज्जोओ मणुवतिरिक्खाउगं पसत्थासु ।
मिच्छस्स होंति तिव्वा सम्माइट्ठिस्स सेसाओ ॥165॥
मणुऔरालदुवज्जं विसुद्धसुरणिरयअविरदे तिव्वा ।
देवाउ अप्पमत्ते खवगे अवसेसबत्तीसा ॥166॥
उवघादहीणतीसे अपुव्वकरणस्स उच्चजससादे ।
संमेलिदे हवंति हु खवगस्सऽवसेसबत्तीसा ॥167॥
मिच्छस्संतिमणवयं णरतिरियाऊणि वामणरतिरिये ।
एइंदियआदावं थावरणामं च सुरमिच्छे ॥168॥
उज्जोवो तमतमगे सुरणारयमिच्छगे असंपत्तं ।
तिरियदुगं सेसा पुण चदुगदिमिच्छे किलिट्ठे य ॥169॥
अन्वयार्थ : उन 42 प्रशस्त प्रकृतियों में से आतप, उद्योत, मनुष्यायु और तिर्यंचायु - इन चार का बंध विशुद्ध मिथ्यादृष्टि के होता है । शेष 38 प्रकृतियों का विशुद्ध सम्यग्दृष्टि के होता है ।
सम्यग्दृष्टि की 38 प्रकृतियों में से मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक और वज्रऋषभनाराचसंहनन - इन पाँचों का बंध विशुद्ध देव और नारकी असंयत सम्यग्दृष्टि करते है । देवायु का अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती करते है । शेष 32 प्रकृतियों का बंध क्षपकश्रेणी वाले जीव के होता है ।
अपूर्वकरण के छठे भाग की 30 व्युच्छिन्न प्रकृतियों में एक उपघात प्रकृति को छोड़कर शेष 29 प्रकृतियाँ और उच्च गोत्र, यशःकीर्ति, सातावेदनीय - ये सब मिलकर क्षपकश्रेणी वाले के पूर्व गाथा में कही 32 प्रकृतियाँ जानना ।
मिथ्यात्व गुणस्थान की व्युच्छिन्न प्रकृतियों में से अंत की सूक्ष्मादि 9 प्रकृतियों का और मनुष्यायु, तिर्यंचायु का बंध मिथ्यादृष्टि मनुष्य वा तिर्यंच करते हैं । एकेन्द्रिय आतप और स्थावर का बंध मिथ्यादृष्टि देव करते हैं ।
सातवें तमस्तमक नामा नरक में उद्योत का, मिथ्यादृष्टि देव व नारकी असंप्राप्तसृपाटिका संहनन, तिर्यंचद्विक का बाँधते हैं । शेष 68 प्रकृतियों को चारों गति के संक्लेश परिणाम वाले मिथ्यादृष्टि जीव बाँधते हैं ।