
वण्णचउक्कमसत्थं उवघादो खवगघादि पणवीसं ।
तीसाणमवरबंधो सगसगवोच्छेदठाणम्हि ॥170॥
अणथीणतियं मिच्छं मिच्छे अयदे हु बिदियकोधादी ।
देसे तदियकसाया संजमगुणपच्छिदे सोलं ॥171॥
आहारमप्पमत्ते पमत्तसुद्धे य अरदिसोगाणं ।
णरतिरिये सुहुमतियं वियलं वेगुव्वछक्काओ ॥172॥
सुरणिरये उज्जोवोरालदुगं तमतमम्हि तिरियदुगं ।
णीचं च तिगदिमज्झिमपरिणामे थावरेयक्खं ॥173॥
सोहम्मोत्ति य तावं तित्थयरं अविरदे मणुस्सम्हि ।
चदुगदिवामकिलिट्ठे पण्णरस दुवे विसोहीये ॥174॥
परघाददुगं तेजदु तसवण्णचउक्क णिमिणपंचिंदी ।
अगुरुलहुं च किलिट्ठे इत्थिणउंसं विसोहीये ॥175॥
सम्मो वा मिच्छो वा अट्ठ अपरियत्तमज्झिमो य जदि ।
परियत्तमाणमज्झिममिच्छाइट्ठी दु तेवीसं ॥176॥
थिरसुहजससाददुगं उभये मिच्छेव उच्चसंठाणं ।
संहदिगमणं णरसुरसुभगादेज्जाण जुम्मं च ॥177॥
अन्वयार्थ : अशुभ वर्णादि चार, उपघात, क्षय होने वाली घातिया कर्मों की 25 - इन सब 30 प्रकृतियों का अपनी-अपनी बंध-व्युच्छित्ति के स्थान पर जघन्य अनुभागबंध होता है ।
अनंतानुबंधी कषाय , स्त्यानगृद्धादिक 3 और मिथ्यात्व - ये आठ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में, दूसरी अप्रत्याख्यान कषाय असंयत गुणस्थान में, तीसरी प्रत्याख्यान कषाय देशसंयत गुणस्थान में - इन 16 प्रकृतियों को इन गुणस्थानों में जो संयमगुण के धारने को सम्मुख हुआ है ऐसा विशुद्ध परिणाम वाला जीव बाँधता है ।
आहारकद्विक प्रमत्त गुणस्थान के सम्मुख हुए संक्लेशपरिणाम वाले अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती के; अरति, शोक अप्रमत्त गुणस्थान के सम्मुख हुए विशुद्ध प्रमत्त गुणस्थानवर्ती जीव के बंधती हैं । सूक्ष्मत्रिक, विकलत्रिक, वैक्रियिक षट्क और 4 आयु - ये सोलह प्रकृतियाँ मनुष्य अथवा तिर्यंच के बंधती हैं ।
देव और नारकी के उद्योत, औदारिकद्विक, सातवें तमस्तमक नरक में तिर्यंचद्विक, नीचगोत्र और नारकी के बिना तीन गति वाले तीव्र विशुद्धि और संक्लेश से रहित मध्यमपरिणामी जीवों के स्थावर, एकेन्द्रिय बंधती हैं ।
भवनत्रिक से लेकर सौधर्मद्विक तक के देवों के आतप, नरक जाने को सम्मुख हुए अविरत गुणस्थानवर्ती मनुष्य के तीर्थंकर प्रकृति, चारों गति के संक्लेश परिणामी मिथ्यादृष्टि जीवों के 15 प्रकृतियाँ और चारों गति के विशुद्ध परिणामी जीवों के दो प्रकृतियाँ बंधती हैं ।
परघात, उच्छ्वास, तैजसद्विक, त्रस चतुष्क, शुभ वर्णादि चतुष्क, निर्माण, पंचेंद्री और अगुरुलघु - ये 15 संक्लेशपरिणामी जीव के तथा स्त्रीवेद, नपुंसकवेद - ये दो विशुद्धपरिणामी जीव के बंधती हैं ।
आगे की गाथा में जो 31 प्रकृति कहेंगे, उनमें से पहली आठ प्रकृतियों को अपरिवर्तमान मध्यमपरिणाम वाला सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव बाँधता है । शेष 23 प्रकृतियों को परिवर्तमान मध्यमपरिणामी मिथ्यादृष्टि जीव ही बाँधता है ।
स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति, सातावेदनीय - इन चारों का जोड़ा सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि इन दोनों के बंधती है । उच्च गोत्र, 6 संस्थान, 6 संहनन, विहायोगति का जोड़ा, तथा मनुष्यगति-स्वर-सुभग-आदेय - इन चारों का जोड़ा, सब मिलकर 23 प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि के ही होता है ।