
देसोत्ति हवे सम्मं तत्तो दारूअणंतिमे मिस्सं ।
सेसा अणंतभागा अट्ठिसिलाफड्ढया मिच्छे ॥181॥
आवरणदेसघादंतरायसंजलणपुरिससत्तरसं ।
चदुविधभावपरिणदा तिविधा भावा हु सेसाणं ॥182॥
अवसेसा पयडीओ अघादिया घादियाण पडिभागा ।
ता एव पुण्णपावा सेसा पावा मुणेयव्वा ॥183॥
अन्वयार्थ : मिथ्यात्व प्रकृति के लता भाग से दारू भाग के अनंतवें भाग तक देशघाति स्पर्द्धक हैं, वे सब सम्यक्त्व प्रकृतिरूप हैं । दारूभाग के अनंत बहुभाग के अनंतवें भागप्रमाण जुदी जाति के ही सर्वघाति स्पर्द्धक मिश्र प्रकृति के जानना । शेष अनंत बहुभाग तथा अस्थिभाग, शैलभागरूप स्पर्द्धक मिथ्यात्व प्रकृति के होते हैं ।
आवरणों में देशघाति की 7 प्रकृतियाँ , अंतराय 5, संज्वलन 4 और पुरुषवेद - ये 17 प्रकृतियाँ शैल आदि चारों तरह के भावरूप परिणमन करती हैं और शेष सब प्रकृतियों के शैल आदि तीन भावरूप परिणमन होते हैं, ।
शेष अघातिया कर्मों की प्रकृतियाँ घातिया कर्मों की तरह प्रतिभागसहित जाननी अर्थात् तीन भावरूप परिणमती हैं और वे ही पुण्यरूप तथा पापरूप होती हैं । तथा घातिया कर्मों की सब प्रकृतियाँ पापरूप ही हैं ।