+ कर्मरूप पुद्गलों का आत्मा के प्रदेशों के साथ संबंध होना -
एयक्खेत्तोगाढं सव्वपदेसेहिं कम्मणो जोग्गं ।
बंधदि सगहेदूहिं य अणादियं सादियं उभयं ॥185॥
एयसरीरोगाहियमेयक्खेत्तं अणेयखेत्तं तु ।
अवसेसलोयखेत्तं खेत्तणुसारिट्ठियं रूवी ॥186॥
अन्वयार्थ : एकक्षेत्र में अवगाहरूप रहनेवाले जो कर्मरूप परिणमने योग्य अनादि, सादि और उभयरूप पुद्गलद्रव्य सर्व प्रदेशों द्वारा (मिथ्यात्वादिक) के निमित्त से बांधता है ॥185॥
एक शरीर की अवगाहना द्वारा रोका हुआ जो आकाश उसे एक क्षेत्र कहते हैं । अवशेष लोक को अनेकक्षेत्र कहते हैं । उस-उस क्षेत्र के अनुसार रहनेवाला रूपी जो पुद्गलद्रव्य उसका परिमाण त्रैराशिक से जानना ॥186॥