
आउगभागो थोवो णामागोदे समो तदो अहियो ।
घादितियेवि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदिये ॥192॥
सुहदुक्खणिमित्तादो बहुणिज्जरगोत्ति वेयणीयस्स ।
सव्वेहिंतो बहुगं दव्वं होदित्ति णिद्दिट्ठं ॥193॥
सेसाणं पयडीणं ठिदिपडिभागेण होदि दव्वं तु ।
आवलिअसंखभागो पडिभागो होदि णियमेण ॥194॥
बहुभागे समभागो अट्ठण्हं होदि एक्कभागम्हि ।
उत्तकमो तत्थवि बहुभागो बहुगस्स देओ दु ॥195॥
अन्वयार्थ : सब मूल प्रकृतियों में आयुकर्म का हिस्सा थोड़ा है । नाम और गोत्र कर्म का हिस्सा आपस में समान है, तो भी आयुकर्म के भाग से अधिक है । अंतराय-दर्शनावरण-ज्ञानावरण इन तीन घातिया कर्मों का भाग आपस में समान है, तो भी नाम-गोत्र के भाग से अधिक है । इससे अधिक मोहनीय कर्म का भाग है तथा मोहनीय से भी अधिक वेदनीय कर्म का भाग है ॥192॥
वेदनीय कर्म सुख-दुःख में निमित्त होता है, इसलिये इसकी निर्जरा भी बहुत होती है । इसीलिए सब कर्मों से अधिक द्रव्य इस वेदनीय कर्म का होता है; ऐसा परमागम में कहा है ॥193॥
वेदनीय को छोड़कर शेष सब मूल प्रकृतियों के स्थिति प्रतिभाग से द्रव्य होता है । इनके विभाग करने में प्रतिभागहार नियम से आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण जानना ॥194॥
बहुभाग का समान भाग करके आठ प्रकृतियों को देना और शेष एकभाग में पहले कहे हुए क्रम से भाग देते जाना । उसमें भी जो बहुत द्रव्य वाला हो उसको बहुभाग देना । ऐसा अंत तक प्रतिभाग करते जाना ॥195॥