+ योगस्थान -
उववादजोगठाणा भवादिसमयट्ठियस्स अवरवरा ।
विग्गहइजुगइगमणे जीवसमासे मुणेयव्वा ॥219॥
परिणामजोगठाणा सरीरपज्जत्तगादु चरिमोत्ति ।
लद्धिअपज्जत्ताणं चरिमतिभागम्हि बोधव्वा ॥220॥
सगपज्जत्तीपुण्णे उवरिं सव्वत्थ जोगमुक्कस्सं ।
सव्वत्थ होदि अवरं लद्धिअपुण्णस्स जेट्ठंपि ॥221॥
एयंतवड्ढिठाणा उभयट्ठाणाणमंतरे होंति ।
अवरवरट्ठाणाओ सगकालादिम्हि अंतम्हि ॥222॥
अन्वयार्थ : पर्याय धारण करने के पहले समय में स्थित जीव के उपपाद योगस्थान होता हैं । वक्रगति से उत्पन्न के जघन्य (उपपाद योगस्थान) और ऋजुगति वाले के उत्कृष्ट (उपपाद योगस्थान) होता है । वे उपपाद योगस्थान चौदह जीवसमासों में जानना ॥219॥
शरीरपर्याप्ति के पूर्ण होने के समय से लेकर आयु के अंत तक परिणामयोगस्थान हैं । लब्ध्यपर्याप्त जीव के अपनी आयु के अंत के त्रिभाग के प्रथम समय से लेकर अंत के समय तक जानना ॥220॥
अपनी-अपनी शरीर पर्याप्ति के पूर्ण होने के समय से लेकर ऊपर आयु के अंत समय तक सम्पूर्ण समयों में परिणामयोगस्थान उत्कृष्ट भी होते हैं और जघन्य भी हो सकता है । और इसी तरह लब्ध्यपर्याप्तक के भी अपनी स्थिति के सब भेदों में दोनों परिणामयोगस्थान संभव हैं ॥221॥
एकांतानुवृद्धि योगस्थान, उपपाद और परिणाम दोनों स्थानों के बीच में, अर्थात् पर्यायधारण करने के दूसरे समय से लेकर एक समय कम शरीर पर्याप्ति के अंतर्मुहूर्त के अंतिम समय तक होते हैं । उनमें जघन्यस्थान तो अपने काल के पहले समय में और उत्कृष्ट स्थान अंतिम समय में होता है ॥222॥