अविरयएक्कारह तियचउक्कसाया पमत्तए णत्थि ।
अत्थि हु आहारदुगं हारदुगं णत्थि सत्तट्ठे ॥१६॥
अविरत्यैकादश तृतीयचतुष्कषाया: प्रमत्तके न संति ।
अस्ति हि आहारद्विकं, आहारद्विकं नास्ति सप्तमे अष्टमे ॥
अन्वयार्थ : देशसंयत गुणस्थान में ११ अविरति, प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि चार इन १५ की व्युच्छित्ति होती है अत: ये १५ आस्रव प्रमत्तसंयत में नहीं हैं एवं प्रमत्तसंयत में आहारकयुगल पाये जाते हैं । आगे सातवें, आठवें गुणस्थान में ये आहारकद्विक नहीं हैं अर्थात् छठे में आहारकद्विक की व्युच्छित्ति होती है । सातवें में व्युच्छित्ति किसी आस्रव की नहीं है ॥१६॥