छण्णोकसाय णवमे ण हि दसमे संढमहिलपुंवेयं ।
कोहो माणो माया ण हि लोहो णत्थि उवसमे खीणे ॥१७॥

षण्णोकषाया:, नवमे 'नहि' दशमे पंढमहिलपुंवेदा: ।
क्रोधो मानो माया 'नहि' लोभो, नास्ति उपशमे, क्षीणे ॥

अन्वयार्थ : छह नोकषाय नवमें गुणस्थान में नहीं हैं अर्थात् आठवें में हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन छह आस्रवों की व्युच्छित्ति हो जाती है । दसवें गुणस्थान में नपुंसक, स्त्री, पुरुषवेद, क्रोध, मान, माया ये छह आस्रव नहीं हैं, इनकी व्युच्छित्ति नवमें गुणस्थान के छह भागों में क्रम से हो जाती है । उपशांतमोह, क्षीणमोह नामक ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में लोभ कषाय नहीं है मतलब दसवें में लोभ की व्युच्छित्ति हो जाती है, ग्यारहवें गुणस्थान में व्युच्छित्ति का अभाव है ॥१७॥