
कथा :
अनन्त सुख के देने वाले और तीनों जगत् के स्वामी श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर माया को नाश करने के लिए मायाविनी पुष्पदत्ता की कथा लिखी जाती है । प्राचीन समय से प्रसिद्ध अजितावर्त नगर के राजा पुष्पचूल की रानी का नाम पुष्पदत्ता था । राज सुख भोगते हुए पुष्पचूल ने एक दिन अमरगुरू मुनि के पास जिनधर्म का स्वरूप सुना, जो धर्म स्वर्ग और मोक्ष के सुख की प्राप्ति का कारण हैं । धर्मोप देश सुनकर पुष्पचूल को संसार, शरीर, भोगादिकों से बड़ा वैराग्य हुआ । वे दीक्षा लेकर मुनि हो गये । उनकी रानी पुष्पदत्ता ने भी उनकी देखा-देखी ब्रह्मिली नाम की आर्यिका के पास आर्यिका की दीक्षा ले ली । दीक्षा ले-लेने पर भी इसे अपने बड़प्पन राजकुल का अभिमान जैसा का तैसा ही बना रहा । धार्मिक आचार-व्यवहार से यह विपरीत चलने लगी । और-और आर्यिकाओं को नमस्कार, विनय करना इसे अपने अपमान का कारण जान पड़ने लगा । इसलिए यह किसी को नमस्कारादि नहीं करती थी । इसके सिवा इस योग अवस्था से भी यह अनेक प्रकार की सुगन्धित वस्तुओं द्वारा अपने शरीर को सिंगारा करती थी । इसका इस प्रकार बुरा, धर्मविरुद्ध आचार-विचार देखकर एक दिन धर्मात्मा ब्रह्मिला ने इसे समझाया कि इस योगदशा में तुझे ऐसा शरीर का सिंगार आदि करना उचित नहीं है । ये बातें धर्मविरूद्ध और पाप की कारण हैं । इसलिए कि इन से विषयों की इच्छा बढ़ती है । पुष्पदत्ता ने कहा-नहीं जी, मैं कहां सिंगार-विंगार करती हूँ । मेरा तो शरीर ही जन्म से ऐसी सुगन्ध लिये है । सच है, जिनके मन में स्वभाव से धर्म-वासना न हो उन्हें कितना भी समझाया जाय, उन पर उस समझाने का कुछ असर नहीं होता । उनकी प्रवृत्ति और अधिक बुरे कार्मो की ओर जाती है । पुष्पदत्ता ने यह मायाचार कर ठीक न किया । इसका फल इसके लिए बुरा हुआ । वह मर कर इस माया चार के पाप से चम्पापुरी में सागरदत्त सेठ के यहाँ दासी हुई । इसका नाम जैसा पूतिमुखी था, इसके मुँह से भी सदा वैसी दुर्गन्ध निकलती रहती थी । इसलिए बुद्धिमानों को चाहिए कि वे माया को पाप को कारण जान कर उसे दूर से ही छोड़ दें । यही माया पशुगति के दु:खों की कारण है और कुल, सुन्दरता, यश, माहात्म्य, सुगति धन-दौलत तथा सुख आदि का नाश करने वाली है और संसार के बढ़ा नेवाली लता है । यह जानकर माया को छोड़े हुए जैनधर्म अनुभवी विद्वानों को उचित है कि वे धर्म को ओर अपनी बुद्धि का लगावें । |