
कथा :
सुख रूपी धान को हरा-भरा करने के लिए जो मेघ समान हैं, ऐसे जिनभगवान् के चरणों को नमस्कार कर भरत-पुत्र मरीचि की कथा लिखी जाती है, जैसी कि वह और शास्त्रों में लिखी है । अयोध्या में रहने वाले सम्राट् भारतेश्वर भरत के मरीचि नाम का पुत्र हुआ । मरीचि भव्य था और सरलमना था । जब आदिनाथ भगवान् जो कि इन्द्र, धरणेन्द्र, विद्याधर चक्रवर्ती आदि सभी महापुरूषों द्वारा सदा पूजा किये जाते थे, संसार छोड़कर योगी हुए तब उनके साथ कोर्इ चार हजार राजा और भी साधु हो गये । इस कथा का नायक मरीचि भी इन साधुओं में था । भरतराज एक दिन भगवान् आदिनाथ तीर्थकर का उपदेश सुनने को समवशरण में गये । भगवान् को नमस्कार कर उन्होंने पूछा-भगवन्, आप के बाद तेईस तीर्थकर और होंगे ऐसा मुझे आपके उपदेश से जान पड़ा पर इस सभा में भी कोई ऐसा महापुरूष हैं जो तीर्थंकर होनेवाला हो ? भगवान् बोले-हाँ, है । वह यहीं तेरा पुत्र मरीचि, जो अन्तिम तीर्थंकर महावीर के नाम से प्रख्यात होगा । इसमें कोई सन्देह नहीं । सुनकर भरत की प्रसन्नता का तो कुछ ठिकाना न रहा और इसी बात से मरीचि की मतिगति उलटी ही हो गई । उसे अभिमान आ गया कि अब तो मैं तीर्थंकर होऊँगा ही, फिर मुझे नंगे रहना, दु:ख् सहना, पूरा खाना-पीना नहीं, यह सब कष्ट क्यों ? किसी दूसरे वेष में रहकर मैं क्यों न सुख आराम पूर्वक रहूँ ! बस, फिर क्या था, जैसे ही विचारों का हृदय में उदय हुआ, उसी समय वह सब व्रत, संयम; आचार-विचार, सम्यक्त्व आदि को छोड़-छाड़ कर तापसी बन गया और सांख्य, परिव्राजक आदि कई मतों को अपनी कल्पना से चलाकर संसार के घोर दु:खों का भोग ने वाला हुआ । इसके बाद वह अनेक कुगतियों में घूमा किया । सच है, प्रमाद, असावधानी या कषाय जीवों के कल्याण-मार्ग में बड़ा ही विघ्न करने वाली है और अज्ञान से भव्यजन भी प्रमादी बनकर दु:ख भोगते हैं । इसलिए ज्ञानियों को धर्मकार्यो में तो कभी भूलकर भी प्रमाद करना ठीक नहीं है । मोह की लीला से मरीचि को चिरकाल तक संसार में घूमना पड़ा । इसके बाद पाप कर्म की कुछ शान्ति होने से उसे जैनधर्म का फिर योग मिल गया । उसके प्रसाद से वह नन्द नाम का राजा हुआ । फिर किसी कारण से इसे संसार से वैराग्य हो गया । मुनि होकर इसने सोलह कारण भावना द्वारा तीर्थंकर नाम प्रकृति का बन्ध किया । यहाँ से यह स्वर्ग गया । स्वर्गायु पूरी होने पर इसने कुण्डलपुर में सिद्धार्थ राजा की प्रियकारिणी प्रिया के यहाँ जन्म लिया । ये ही संसार पूज्य महावीर भगवान् के नाम से प्रख्यात हुए । इन्होंने कुमार पन में ही दीक्षा लेकर तपस्या द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर केवल ज्ञान प्राप्त किया । देव, विद्याधर चक्रवर्तियों द्वारा ये पूज्य हुए । अनेक जीवों को इन्होंने कल्याण के मार्ग पर लगाया । अपने समय में धर्म के नाम पर होने वाली वे-शुमार पशु हिंसा का इन्होंने घोर विरोध कर उसे जड़मूल से उखाड़ फैंक दिया । इनके समय में अहिंसा धर्म की पुन: स्थापना हुई । अन्त में ये अघातिया कर्मों का भी नाश कर परमधाम-मोक्ष चले गये । इसलिए हे आत्म सुख के चाहने वालों, तुम्हें सच्चे मोक्ष सुख की यदि चाह है तो तुम सदा हृदय में जिनभगवान के पवित्र उपदेश को स्थान दो । यही तुम्हारा कल्याण करेगा । विषयोंकी ओर ले जाने वाले उपदेश, कल्याण-मार्ग की ओर नहीं झुका सकते । वे वर्द्धमान-महावीर भगवान् संसार में सदा जय लाभ करें, उनका पवित्र शासन निरन्तर मिथ्यान्धकार का नाश कर चमकता रहे, जो भगवान् जीवमात्र का हित करने वाले हैं, ज्ञान के समुद्र हैं, राजों, महाराजों द्वारा पूजा किये जाते हैं और जिनकी भक्ति स्वर्गादि का उत्तम सुख देकर अन्त में अनन्त, अविनाशी मोक्ष-लक्ष्मी से मिला देती है । |