
कथा :
सब सुखों के देने वाले जिनभगवान् के चरणों को नमस्कार कर मूर्खिणी गन्धर्वसेना का चरित लिखा जाता है । गन्धर्वसेना भी एक ही विषय को अत्या शक्ति से मौत के पंजे में फँसी थी । पाटलि पुत्र (पटना) के राजा गन्धवदत्त को रानी गन्धर्व दत्ता के गन्धर्वसेना नाम की एक कन्या थी । गन्धर्वसेना गान विद्याकी बड़ी अच्छी जानकार थी । और इसलिए उसने प्रतिज्ञा कर रक्खो थी कि जो मुझे गाने में जीत लेगा वहीं मेरा स्वामी होगा, उसी की मैं अंकशायिनी बनूंगी । गन्धर्व सेना की खूब सूरती को मनोहारी सुगन्ध की लालसा से अनेक क्षत्रिय कुमार भौरे की तरह खिंचे हुए आते थे, पर यहाँ आकर उन सबको निराश-मुँह लौट जाना पड़ता था । गन्धर्वसेना के सामने गाने में कोई नहीं ठहर ने पाता था । एक पांचाल नाम का उपाध्याय गान शास्त्र का बहुत अच्छा अभ्यासी था । उसकी इच्छा भी गन्धर्व सेना को देखने की हुई । वह अपने पाँच सो शिष्यों को साथ लिये पटना आकर एक बगीचे में ठहरा । समय गर्मी का था और बहुत दूर की मंजिल करने से पांचाल थक भी गया था । इसलिए वह अपने शिष्यों से यह कहकर, कि कोई यहाँ आये तो मुझे जगा देना,एक वृक्ष की ठंडी छाया में सो गया । इधर तो यह सोया और उधर इसके बहुत से विद्यार्थी शहर देखने को चल दिये । गन्धर्व सेना को जब पांचाल के आने और उसके पाण्डित्य की खबर लगी । वह इसे देखने को आई । उसने इसे बहुतसी वीणाओं को आस-पास रखे सोया देख कर समझा तो सही कि यह विद्वान् तो बहुत भारी है, पर जब उसके लार बहते हुए मुँहपर उसकी नजर गई, तो उसे पांचाल से ड़ी नफरत हुई । उसने फिर उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखा और जिस झाड़ के नीचे पांचाल सोया हुआ था । उसकी चन्दन, फूल वगैरह से पूजा कर वह उसी समय अपने महल लौट आई । गन्धर्वसेना के जाने बाद जब पांचाल की नींद खुली और उसने वृक्ष का गध-पुष्पादि से पूजा हुआ पाया तो कुछ संदेह हुआ । एक विद्यार्थी से इसका कारण पूछा तो उसने एक खोके आने और इस वृक्ष की पूजा कर उसके चले जाने का हाल पांचाल से कहा । पांचाल ने समझ लिया कि गन्धर्वसेना आकर चली गई । तब उसने सोचा यह तो ठीक नहीं हुआ । सोने ने सब बना-बनाया खेल बिगाड़ दिया । खैर, जो हुआ, अब पीछे लौट जाना भी ठीक नहीं । चलकर प्रयत्न जरूर करना चाहिए । इसके बाद यह राजा के पास गया और प्रार्थना कर अपने रहने को एक स्थान उसने माँगा । स्थान उसकी प्रार्थना के अनुसार गन्धर्वसेना के महल के पास ही मिला । कारण राजा से पांचाल ने कह दिया था कि आपकी राजकुमारी गाने में बड़ी होशियार है, ऐसा मैं सुनता हूँ । और में भी आपकी कृपा से थोड़ा बहुत गाना जानता हूँ, इसलिए मेरी इच्छा राजकुमारी का गाना सुनकर यह बात देखने की है कि इस विषय में उसकी गति कैसी है । यही कारण था कि राजा ने कुमारी के महल के समीप ही उसे रहने की आज्ञा दे दी । अस्तु । एक दिन पांचाल कोर्इ रात के तीन चार बजे के समय वीणा को हाथ में लिए बड़ी मधुरता से गाने लगा । उसके मधुर मनोहर गाने की आवाज शान्त रात्रि में आकाश को भेदती हुर्इ गन्धर्वसेना के कानों से जाकर टकरार्इ । गन्धर्वसेना इस समय भर नींद में थी । पर इस मनोमुग्ध करने वाली आवाज को सुनकर वह सहसा चौककर उठ बैठी । न केवल उठ बैठने ही से उसे सन्तोष हुआ । वह उठकर उधर दौड़ी भी गर्इ जिधर से आवाज गूँजती हुर्इ आ रही थी । इस बे-भान अवस्था में दौड़ते हुये उसका पाँव खिसक गया और वह धड़ाम से आकर जमीन पर गिर पड़ी । देखते-देखते उसका आत्माराम उसे छोड़कर चला गया । इस विषयासक्ति से उसे फिर संसार में चिर समय तक रूलना पड़ा । गन्धर्वसेना एक कर्णेन्द्रिय के विषय की लम्पटता से जब अथाह संसार सागर में डूबी, तब जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों में सदाकाल मस्त रहते हैं, वे यदि डूबे तो इसमें नर्इ बात क्या ? इसलिए बुद्धिमानों का कर्तव्य है कि वे इन दुखों के कारण विषय भोगों को छोड़कर सुख के सच्चे स्थान जिनधर्म का आश्रय लें । |