+ सगर चक्रवर्ती की कथा -
सागर चक्रवर्ती की कथा

  कथा 

कथा :

देवों द्वारा पूजा किये गये जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर दूसरे चक्रवर्ती सगर का चरित्र लिखा जाता है ।

जम्बुद्वीप के प्रसिद्ध और सुन्दर विदेहक्षेत्र की पूरब-दिशा में सीता नदी के पश्चिम की ओर वत्सकावती नाम का एक देश है । वत्सकावती का बहुत पुरानी राजधानी पृथिवी-नगर के राजा का नाम जयसेन था । जयसेन की रानी जयसेना थी । इसके दो लड़के हुए । इनके नाम थे रतिषेण और धृतिषेण । दोनों भार्इ बड़े सुन्दर और गुणवान थे । काल की कराल गति से रतिषेण मर गया । जयसेन का इसके मरने का बड़ा दु:ख हुआ । और इस दुख के मारे वे धृतिषेण को राज्य देकर मारूत और मिथुन नाम के राजा के साथ यशोधर मुनि के पास दीक्षा ले साधु हो गये । बहुत दिनों तक इन्होंने तपस्या की । फिर संन्यास सहित शरीर छोड़ स्वर्ग में ये महाबल नाम के देव हुए । इनके साथ दीक्षा लेने वाला मारूत भी इसी स्वर्ग में मणिकेतु नामक देव हुआ जो कि भगवान् के चरणकमलों का भौंरा था, अत्यन्त भक्त था । ये दोनों देव स्वर्ग की सम्पत्ति प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुए । एक दिन इन दोनों ने विनोद करते-करते धर्म-प्रेम से एक प्रतिज्ञा की -- जो हम दोनों में पहले मनुष्य जन्म धारण करे तब स्वर्ग में रहने वाले देव का कर्तव्य होना चाहिए कि वह मनुष्य लोक में जाकर उसे समझाये और संसार से उदासीनता उत्पन्न कराकर जिनदीक्षा के सम्मुख करे ।

महाबल की आयु बार्इस सागर की थी । तबतक उसने खूब मन-माना स्वर्ग का सुख भोगा । अन्त में आयु पूरी कर बचे हुए पुण्य-प्रभाव से वह अयोध्या का राजा समुद्रविजय की रानी सुबला के सगर नाम का पुत्र हुआ । इसकी उमर सत्तर लाख पूर्व वर्षों की थी । इसके सोने के समान चमकते हुए शरीर की ऊँचार्इ साढ़े चार सौ धनुष अर्थात् १५७५ हाथों की थी । संसार की सुन्दरता ने इसी में आकर अपना डेरा दिया था, यह बड़ा ही सुन्दर था । जो इसे देखता उसके नेत्र बड़े आनन्दित होते । सगर ने राज्य भी प्राप्त कर छहों खण्ड पृथ्वी विजय की । अपनी भुजाओं के बल इसने दूसरे चक्रवर्ती का मान प्राप्त किया । सगर चक्रवर्ती हुआ, पर इसके साथ वह अपना धर्म-कर्म भूल गया था । इसके साठ हजार पुत्र हुए । इसे कुटुम्ब, धन-दौलत, शरीर-सम्पत्ति आदि सभी सुख प्राप्त थे । समय इसका खूब ही सुख के साथ बीतता था । सच है, पुण्य से जीवों को सभी उत्तम-उत्तम सम्पदायें प्राप्त होती हैं । इसलिये बुद्धिमानों को उचित है कि जिनभगवान् के उपदेश किये पुण्य-मार्ग का पालन करें ।

इसी अवसर में सिद्धवन में चतुर्मुख महामुनि को केवल-ज्ञान हुआ । स्वर्ग के देव, विद्याधर राजा महाराजा उनकी पूजा के लिए आये । सगर भी भगवान् के दर्शन करने को आया था । सगर को आया देख मणिकेतु ने उससे कहा – क्यों राजराजेश्वर, क्या अच्युत स्वर्ग की बात याद है ? जहाँ कि तुमने और मैंने प्रेम के वश ही प्रतिज्ञा की थी कि जो हम दोनों मे से पहले मनुष्य-जन्म ले उसे स्वर्ग का देव जाकर समझावे और संसार से उदासीन कर तपस्या के सम्मुख करे, अब तो आपने बहुत समय तक राज्य-सुख भोग लिया । अब तो इसके छोड़ने का यत्न कीजिये । क्या आप नहीं जानते कि ये विषय-भोग दु:ख के कारण और संसार में घुमाने वाले हैं ? राजन्, आप तो स्वयं बुद्धिमान हैं । आपको मैं क्या अधिक समझा सकता हूँ । मैंने तो सिर्फ अपनी प्रतिज्ञा पालन के लिए आपसे इतना निवेदन किया है । मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन क्षण-भंगुर विषयों से अपनी लालसा को कम करके जिनभगवान् का परम-पवित्र तपोमार्ग ग्रहण करेंगे और बड़ी सावधानी के साथ मुक्ति-कामिनी के साथ ब्याह की तैयारी करेंगे । मणिकेतु ने उसे बहुत कुछ समझाया पर पुत्र-मोही सगर को संसार से नाम-मात्र के लिये भी उदासीनता न हुर्इ । मणिकेतु ने जब देखा कि अभी यह पुत्र, स्त्री, धन-दौलत के मोह में खूब फँस रहा है । अभी इसे संसार से विषय-भोगों से उदासीन बना देना कठिन ही नहीं किन्तु एक प्रकार असंभव को संभव करने का यत्न है । अस्तु, फिर देखा जाएगा । यह विचार कर मणिकेतु अपने स्थान चला गया । सच है, काल-लब्धि के बिना कल्याण भी हो तो नहीं हो सकता ।

कुछ समय के बाद मणिकेतु के मन में फिर एक बार तरंग उठी कि जब किसी दूसरे प्रयत्न द्वारा सगर को तपस्या के सम्मुख करना चाहिए तब वह चारण-मुनि का वेष लेकर, जो कि स्वर्ग-मोक्ष के सुख को देने वाला है, सगर के जिनमन्दिर में आया और भगवान् का दर्शनकर वहीं ठहर गया । उसकी नर्इ उमर और सुन्दरता को देखकर सगर बड़ा अचम्भित हुआ । उसने मुनिरूप धारण करनेवाले देव से पूछा, मुनिराज, आपके इस नर्इ उमर ने, जिसने कि संसार का अभी कुछ सुख नहीं देखा, ऐसे कठिन योग को किसलिए धारण किया ? मुझे तो आपको योगी हुए देखकर बड़ा आश्चर्य हो रहा है । तब देव ने कहा -- राजन्, तुम कहते हो, वह ठीक है । पर मेरा विश्वास है कि संसार में सुख है ही नहीं । जिधर मैं आंख खोलकर देखता हूँ मुझे दु:ख या अशान्ति ही दिख पड़ती है । यह जवाब बिजली की तरह चमककर पलभर में नाश होने वाली है । यह शरीर, जिसे तुम भोगों में लगाने को कहते हो, महा अपवित्र है । ये विषय-भोग जिन्हें तुम सुखरूप समझते हो, सर्प के समान भयंकर है और यह संसाररूपी समुद्र अथाह है, नाना तरह के दु:ख रूपी भयंकर जल जीवों से भरा हुआ है और मोह-जाल में फँसे हुए जीवों के लिए अत्यन्त दुस्तर है । तब जो पुण्य से यह मनुष्य देह मिला है, इसे इस अथाह समुद्र में बहने देना या जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा बतलाये इस अथाह समुद्र के पार होने के साधन तपरूपी जहाज द्वारा उसके पार पहुँचा देना । मैं तो इसके लिये यही उचित समझता हूँ कि, जब संसार असार है और उसमें सुख नहीं है, तब संसार से पार होने का उपाय करना ही कर्तव्य और दुर्लभ मनुष्य देह के प्राप्त करने का फल है । मैं तो तुम्हें भी यही सलाह दूँगा कि तुम इस नाशवान माया ममता को छोड़कर कभी नाश न होने वाली लक्ष्मी की प्राप्ति के लिये यत्न करो । मणिकेतु ने इसके सिवा और भी बहुत कहने सुनने या समझाने में कोर्इ कसर न की । पर सगर सब कुछ जानता हुआ भी पुत्र-प्रेम के वश ही संसार को न छोड़ सका । मणिकेतु को इससे बड़ा दु:ख हुआ कि सगर की दृष्टि में अभी संसार की तुच्छता नजर न आर्इ और वह उलटा उसी में फँसता जाता है । लाचार हो वह स्वर्ग चला गया ।

एक दिन सगर राजसभा में सिंहासन पर बैठे हुए थे । इतने में उनके पुत्रों ने आकर उनसे सविनय प्रार्थना की – पूज्यपाद पिताजी, उन वीर क्षत्रिय पुत्रों का जन्म किसी काम का नहीं, व्यर्थ है, जो कुछ काम न कर पड़े-पड़े खाते-पीते और ऐशो-आराम उड़ाया करते हैं । इसलिये आप कृपा-कर हमें कोर्इ काम बतलाइये । फिर वह कितना ही कठिन या एक बार वह असाध्य ही क्यों न हो, उसे हम करेंगे । सगर ने उन्हें जवाब दिया -- पुत्रों, तुमने कहा वह ठीक है और तुम से वीरों के लिए यही उचित भी है । पर अभी मुझे कोर्इ कठिन या सीधा ऐसा काम नहीं देख पड़ता जिसके लिए मैं तुम्हें कष्ट दूँ । और न छहों खण्ड पृथ्वी में मेरे लिये कुछ असाध्य ही है । इसलिये मेरी तो तुमसे यही आज्ञा है कि पुण्य से जो यह धन-सम्पत्ति प्राप्त है, इसे तुम भोगो । इस दिन तो ये सब लड़के पिता की बात का कुछ जवाब न देकर चुपचाप इसलिये चले गये कि पिता की आज्ञा तोड़ना ठीक नहीं । परन्तु इनका मन इससे रहा अप्रसन्न ही ।

कुछ दिन बीतने पर एक दिन ये सब फिर सगर के पास गये और उन्हें नमस्कार कर बोले -- पिताजी, आपने जो आज्ञा की थी, उसे हमने इतनों दिनों उठार्इ, पर अब हम अत्यन्त लाचार हैं । हमारा मन यहाँ बिलकुल नहीं लगता । इसलिये आप अवश्य कुछ काम में हमें लगाइये । नही तो हमें भोजन न करने को भी बाध्य होना पड़ेगा । सगर ने जब इनका अत्यन्त ही आग्रह देखा तो उसने इनसे कहा – मेरी इच्छा नहीं कि तुम किसी कष्ट को उठाने को तैयार हो । पर जब तुम किसी तरह मानने के लिये तैयार ही नहीं हो, तो अस्तु, मैं तुम्हें यह काम बताता हूँ कि श्रीमान् भरत-सम्राट ने कैलाश-पर्वत पर चौबीस-तीर्थंकरों के चौबीस मन्दिर बनवाये हैं । वे सब सोने के हैं । उनमें बेशुमार धन खर्च किया है, उनमें जो अर्हन्त भगवान् की पवित्र-प्रतिमाएँ हैं, वे रत्नमयी हैं । उनकी रक्षा करना बहुत जरूरी है । इसलिए तुम जाओ और कैलाश के चारों ओर एक गहरी खार्इ खोदकर उसे गंगा का प्रवाह लाकर भर दो । जिससे कि फिर दुष्ट लोग मन्दिरों को कुछ हानि न पहुँचा सके । सगर के सब ही पुत्र पिताजी की इस आज्ञा से बहुत खुश हुए । वे उन्हें नमस्कार कर आनन्द और उत्साह के साथ अपने काम के लिए चल पड़े । कैलाश पर पहुँचकर कर्इ वर्षों स के कठिन परिश्रम द्वारा उन्होंने चक्रवर्ती के दण्डरत्न की सहायता से अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर ली ।

अच्छा, अब उस मणिकेतु की बात सुनिए – उसने सगर को संसार से उदासीन कर योगी बनाने के लिए दोबारा यत्न किया, पर दोनों ही बार उसे निराश हो जाना पड़ा । अबकी बार उसने एक बड़ा ही भयंकर कांड रचा । जिस समय सगर के ये साठ हजार लड़के खार्इ खोदकर गंगा का प्रवाह लाने को हिमालय पर्वत पर गये और इन्होंने दण्ड-रत्न द्वारा पर्वत फोड़ने के लिए उसपर एक चोट मारी उस समय मणिकेतु ने एक बड़े भारी और महा-विषधर सर्प का रूप धर, जिसकी फुँकार मात्र से कोसों दूर के जीव-जन्तु भस्म हो सकते थे, अपनी विषैली हवा छोड़ी । उससे देखते-देखते वे सब ही जलकर खाक हो गये । सच है, अच्छे पुरूष दूसरे का हित करने के लिए कभी-कभी तो उसका अहित कर उसे हित की ओर लगाते हैं । मन्त्रियों को इनके मरने की बात मालूम हो गर्इ । पर उन्होंने राजा से इसलिए नहीं कहा कि वे ऐसे महान् दु:ख को न सह सकेंगे । तब मणिकेतु ब्राह्मण का रूप लेकर सगर के पास पहुँचा और बड़े दु:ख के साथ रोता-रोता बोला -- राजाधिराज, आप सरीखे न्यायी और प्रजा-प्रिय राजा के रहते मुझे अनाथ हो जाना पड़े, मेरी आँखों के एक-मात्र तारे को पापी लोग जबरदस्ती मुझसे छुड़ा ले जाय, मेरी सब आशाओं पर पानी फेरकर मुझे द्वार-द्वार का भिखारी बना दिया जाय और मुझे रोता छोड़ जाय तो इससे बढ़कर दु:खकी और क्या बात होगी ! प्रभो, मुझे आज पापियों ने बे-मौत मार डाला है । मेरी आप रक्षा कीजिए -- अशरण-शरण, मुझे बचाइये । सगर ने उसे इस प्रकार दु:खी देखकर धीरज दिया और कहा -- ब्राह्मण देव, घबराइये मत वास्तव में बात क्या है उसे कहिए । मैं तुम्हारे दु:ख दूर करने का यत्न करूँगा । ब्राह्मण ने कहा – महाराज क्या कहूँ ? कहते छाती फटी जाती है, मुँह से शब्द नहीं निकलता । यह सुनकर वह फिर रोने लगा । चक्रवर्ती को इससे बड़ा दु:ख हुआ । उसके अत्यन्त आग्रह करने पर मणिकेतु बोला – अच्छा तो महाराज, मेरी दु:ख की कथा सुनिए – मेरे एक-मात्र लड़का था । मेरी सब आशा उसी पर थी । वही मुझे खिलाता-पिलाता था । पर मेरे भाग्य आज फूट गये । उसे एक काल नाम का लुटेरा मेरे हाथों से जबरदस्ती छीन भागा । मैं बहुत रोया व कलपा, दया की मैंने उससे भीख मांगी, बहुत आर्जू-मिन्नत की, पर उस पापी चाण्डाल ने मेरी ओर ऑंख उठाकर भी न देखा । राजराजेश्वर, आपसे, मेरी हाथ जोड़कर प्रार्थना है कि आप मेरे पुत्र को उस पापी से छुड़ा लादीजिए । नहीं तो मेरी जान न बचेगी । सगर को काल-लुटेर का नाम सुनकर हँसी आ गर्इ । उसने कहा -- महाराज, आप बड़े भोले हैं । भला, जिसे काल ले जाता है, जो मर जाता है वह फिर कभी जीता हुआ है क्या ? ब्राह्मण देव, काल किसी से नहीं रुक सकता । वह तो अपना काम किये ही चला जाता है । फिर चाहे कोर्इ बूढ़ा हो, या जवान हो, या बालक, सबके प्रति उसके समान भाव है । आप तो अभी अपने लड़के के लिए रोते हैं, पर मैं कहता हूँ कि वह तुम पर भी बहुत जल्दी सवारी करने वाला है । इसलिए यदि यह चाहते हो कि मैं उससे रक्षा पा सकूँ, तो इसके लिए यह उपाय कीजिए कि आप दीक्षा लेकर मुनि हो जाँय और अपना आत्म-हित करें । इसके सिवा काल पर विजय पाने का और कोर्इ दूसरा उपाय नहीं है । सब कुछ सुन-सुना कर ब्राह्मण ने कुछ लाचारी बतलाते हुए कहा कि यदि यह बात सच है और वास्तव में काल से कोर्इ मनुष्य विजय नहीं पा सकता तो लाचारी है । अस्तु, हाँ एक बात तो राजाधिराज, मैं आपसे कहना ही भूल गया और वह बड़ी ही जरूरी बात थी । महाराज, इस भूल की मुझ गरीब पर क्षमा कीजिए । बात यह है कि मैं रास्ते में आता-आता सुनता आ रहा हूँ, लोग परस्पर में बातें करते हैं कि हाय ! बड़ा बुरा हुआ जो अपने महाराज के लड़के कैलाश पर्वत की रक्षा के लिए खार्इ खोदने को गये थे, वे सबके सब ही एक साथ मर गये । ब्राह्मण का कहना पूरा भी न हुआ कि सगर एकदम गश खाकर गिर पड़े । सच है, ऐसे भयंकर दु:ख समाचार से किसे गश न आयेगा, कौन मूर्च्छित न होगा । उसी समय उपचारों द्वारा सगर होश में लाये गये । इसके बाद मौका पाकर मणिकेतु ने उन्हें संसार की दशा बतलाकर खूब उपदेश किया । अबकी बार वह सफल प्रयत्न हो गया । सगर को संसार की इस क्षण-भंगुर दशा पर बड़ा ही वैराग्य हुआ । उन्होंने भगीरथ को राज देकर और सब माया-ममता को छुड़ाकर दृढ़ धर्म-केवली द्वारा दीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि संसार का भटकना मिटाने वाली है ।

सगर को दीक्षा लिए बाद ही मणिकेतु कैलाश पर्वत पर पहूँचा और उन लड़कों को माया-मीत से सचेत कर बोला -- सगरसुतों, जब आपको मृत्यु का हाल आपके पिता ने सुना तो उन्हें अत्यन्त दु:ख के मारे वे संसार की बिना शोकलक्ष्मी को छोड़कर साधु हो गये । मैं आपके कुल का ब्राह्मण हूँ । महाराज को दीक्षा ले जाने की खबर पाकर आपको ढूँढने को निकला था । अच्छा हुआ जो आप मुझे मिल गये । अब आप राजधानी में जल्दी चलें । ब्राह्मण रूप धारी मणिकेतु द्वारा पिता का अपने लिए दीक्षित हो जाना सुनकर सगर सुतों ने कहा महाराज, आप जायें । हम लोग अब घर नहीं जायेंगे । जिसलिए पिताजी सब राज्य-पाश छोड़कर साधु हो गये तब हम किस मुँह से उस राज को भोग सकते हैं ? हमसे इतनी कृतघ्नता न होगी, जो पिताजी के प्रेम का बदला हम ऐशो-आराम भोग कर दें । जिस मार्ग को हमारे पूज्य पिताजी ने उत्तम समझकर ग्रहण किया है वही हमारे लिए भी शरण है । इसलिए कृपाकर आप हमारे इस समाचार को भैया भगीरथ से जाकर कह दीजिए कि वह हमारे लिए कोर्इ चिन्ता न करें । ब्राह्मण से इसप्रकार कहकर वे सब भार्इ दृढ़ धर्मभगवान् के समवशरण में आये और पिता की तरह दीक्षा लेकर साधु बन गये ।

भगीरथ को भाइयों का हाल सुनकर बड़ा वैराग्य हुआ । उसकी इच्छा भी योग ले लेने की हुर्इ, पर राज्य-प्रबन्ध उसी पर निर्भर रहने से वह दीक्षा न ले सका । परन्तु उसने उन मुनियों द्वारा जिनधर्म का उपदेश सुनकर श्रावकों के व्रत ग्रहण किये । मणिकेतु का सब काम जब अच्छी तरह सफल हो गया तब वह प्रकट हुआ और उन सब मुनियों को नमस्कार कर बोला – भगवन् आपका मैंने बड़ा भारी अपराध जरूर किया है । पर आप जैन-धर्म के तत्व को यथार्थ जानने वाले हैं । इसलिए सेवक पर क्षमा करें । इसके बाद मणिकेतु ने आदि से इति पर्यन्त सबको सब घटना कह सुनार्इ । मणिकेतु के द्वारा सब हाल सुनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुर्इ । वे उससे बोले -- देवराज, इसमें तुम्हारा अपराध क्या हुआ, जिसके लिए क्षमा की जाय ? तुमने तो उल्टा हमारा उपकार किया है । इसलिए हमें तुम्हारा कृतज्ञ होना चाहिए । मित्रपने के नाते से तुमने जो कार्य किया है वैसा करने के लिए तुम्हारे बिना और समर्थ ही कौन था ? इसलिए देवराज, तुम ही सच्चे धर्म-प्रेमी हो, जिनभगवान् के भक्त हो, और मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति के कारण हो । सगर-सुतों का इसप्रकार सन्तोष-जनक उत्तर पा मणिकेतु बहुत प्रसन्न हुआ । वह फिर उन्हें भक्ति-पूर्वक नमस्कार कर स्वर्ग चला गया । यह मुनि-संघ विहार करता हुआ सम्मेद-शिखर पर आया और यहीं कठिन तपस्या कर शुक्ल-ध्यान के प्रभाव से इसने निर्वाण लाभ किया ।

उधर भगीरथ ने जब अपने भाइयों का मोक्ष प्राप्त करना सुना तो उसे भी संसार से बड़ा वैराग्य हुआ । वह फिर अपने वरदत्त पुत्र को राज्य सौंप आप कैलाश पर शिवगुप्त मुनिराज के पास दीक्षा ग्रहण कर मुनि हो गया । भगीरथ ने मुनि होकर गंगा के सुन्दर किनारों पर कभी प्रतिमायोग से, कभी आतापन योग से और कभी और किसी आसन से खूब तपस्या की । देवता लोग उसकी तपस्या से बहुत खुश हुए । और इसलिए उन्होंने भक्ति के वश हो भगीरथ के चरणों में क्षीर-समुद्र के जल से अभिषेक किया, जो कि अनेक प्रकार के सुखों को देनेवाला है । उस अभिषेक के जल का प्रवाह बढ़ता हुआ गंगा में गया । तभी से गंगा तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुर्इ और लोग उसके स्नान को पुण्य का कारण समझने लगे । भगीरथ ने फिर कहीं अन्यत्र विहार न किया । वह वहीं तपस्या करता रहा और अन्त में कर्मों का नाश कर उसने जन्म, जरा, मरणादि रहित मोक्ष का सुख भी यहीं से प्राप्त किया ।

केवलज्ञान रूपी नेत्र द्वारा संसार के पदार्थों को जानने और देखनेवाले, देवों द्वारा पूजा किये गये और मुक्तिरूप रमणी रत्न के स्वामी श्री सागरमुनि तथा जैन तत्व के परम विद्वान वे सगरसुत मुनिराज मुझे वह लक्ष्मी दें, जो कभी नाश होने वाली नहीं है और सर्वोच्च सुख को देनेवाली है ।